मन का मौसम अंतरंगी है
मन का मौसम
अंतरंगी है
यहां कब धूप निकली
कब बर्फ जमीं
कब हवा फिसली
कौन जाने?
विचारों की फितरत यहां
कभी तो एकदम झक्कास है!
तो कभी बहुत उदास है।
कोलाहल से मन
बहुत विचलित होता।
कभी चाहिए मौन,
जिससे पुष्पित-पल्लवित होता।
बात कीजिये मन की
गहराई और विस्तार समान है।
मन की अलबेली तबियत
और उसका रुझान एकसमान है।
मानो मन कोई फकीर सा
जहां जिस बात में रम गया
बस उसी में थम गया।
भावनाओं पर मास्क लगाकर
सोशल डिस्टेंसिंग का नारा
क्या मन लगा सकता है?
वह तो हमेशा
अपने प्रिय के नाम का
जयकारा लगा कर
मैदान में डटा रहता है।
न जाने किस फिराक में
रहता है यह मन
थाह पाना बड़ा मुश्किल है।
दुनिया की परवाह नहीं,
अपनी मर्जियों को
अंजाम देता रहा है
मन के आगे कौन टिक पाया है?
---------------------------
No comments:
Post a Comment