अभिलाषा चिट्ठी की
पेट के बल लेट कर,
तकिये का सहारा लेकर
बड़े ध्यान से सोच-सोच कर
मोतियों जैसे अक्षर पिरो कर
एक एक शब्द लिखी जाती थी।
चिट्ठी, हाँ चिट्ठी वह कहलाती थी।।
मन की सारी बातों को,
अपने घर के हालातों को,
मौसम और शहर की बातों को,
हुई हर किसी से मुलाकातों को,
समाचार बना कर लिखी जाती थीे।
चिट्ठी, हाँ चिट्ठी वह कहलाती थी।।
पिछली भेजी गयी चिट्ठी से,
अब तक के बीच की,
सारी घटनायें लिखी जाती थीं,
वहां से आयी चिट्ठी में, पूछे प्रश्नों की,
उत्तर भिजवायी जाती थी।
चिट्ठी, हाँ चिट्ठी वह कहलाती थी।
उत्साह उमंग जगाती थी चिट्ठी,
वर्तमान में रंग भरती थी।
भविष्य के सपने सजाती थी चिट्ठी,
प्रेम का रूप होती थी।
हरेक को जिसकी आशा रहती थी।
चिट्ठी, हाँ चिट्ठी वह कहलाती थी।।
अभिलाषा होती थी चिट्ठी पाने की,
अपनों को लिखने की, उन्हें भिजवाने की।
हर किसी के जीवन को जो बहलाती थी।
चिट्ठी, हाँ चिट्ठी वह कहलाती थी।।
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