जिन्होंने सृजन किया था
एक भाषा का, एक साहित्य का, एक राष्ट्र का
इनके पिता का नाम यादवचन्द्र चटर्जी था।
बंकिम जी ने साहित्य जगत् को ऐसी कालजयी कृतियां प्रदान कीं
जिनके लिए उन्हें सदैव स्मरण किया जाता रहेगा और उनका नाम इतिहास में युगों-युगों तक अमर रहेगा।
‘वन्देमातरम्’ गीत उनकी एक ऐसी कृति है जो आज भी प्रत्येक भारतीय के हृदय को आन्दोलित करने की क्षमता रखती है।
बंकिमचन्द्र जी भारतवर्ष के ऐसे उपन्यासकार हैं जिनकी रचनाओं ने जनमानस को राष्ट्रीय नवजागरण का संदेश दिया था।
बंकिम जी ने अपना साहित्यिक सफर अंग्रेजी लेखन से प्रारम्भ किया था। मगर उन्हें जल्द ही इस बात का एहसास हो गया था कि जब तक अपने देश की भाषा में सृजन कार्य नहीं किया जाएगा, तब तक यहां के जनमानस को उद्वेलित करना संभव नहीं होगा। इसीलिए अंग्रेजी उपन्यास ‘राजमोहन्स स्पाउफज’ को उन्होंने आधा अधूरा ही छोड़कर अपनी भाषा में साहित्य सृजन आरंभ कर दिया।
उन्होंने ऐतिहासिक घटनाओं को अपनी रचनाओं का आधार बनाया। दुर्गेशनन्दिनी, आनन्दमठ, कपालकुण्डला, मृृणालिनी, राजसिंह, विषवृक्ष, कृष्णकान्त का वसीयतनामा, सीताराम, चन्द्रशेखर, राधारानी, रजनी और इन्दिरा उनकी अद्वितीय कृतियां हैं।
इन समस्त रचनाओं में उन्होंने किसी न किसी प्रकार अत्याचार और अनाचार से लोहा लेने की ही प्रेरणा दी है। ‘आनन्दमठ’ उनकी सबसे उत्कृष्ट कृति मानी जाती है तथा इसी उपन्यास में उन्होंने ‘वन्देमातरम्’ गीत का भी समावेश किया है।
उन्होंने सामाजिक उपन्यासों में भारतीय संस्कृति की गरिमा तथा चारित्रिक उत्कृष्टता को अक्षुण्ण बनाए रखा है।
8 अप्रैल, 1894 को इस महानायक के देहावसान पर श्री अरविन्द घोष ने बम्बई से प्रकाशित ‘इन्दु प्रकाश’ में लिखे थे-उन्होंने ‘केवल कर्तव्य की भावना से शान्तिपूर्वक चुपचाप कार्य करते रहकर सृजन किया था एक भाषा का, एक साहित्य का, एक राष्ट्र का।’ ये शब्द आज भी स्मरण करने योग्य हैं।
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