Motivational Story-Nai soch ke sath apney ko badaliye
नई सोच के साथ अपने को बदलिए60 से 65 वर्ष की उम्र में रिटायर्ड होने के बाद लोग बेकारी का जीवन जीते हैं। यह निष्क्रियता का जीवन उनके लिए अभिशाप बन जाता है। वे अनेक रोगों से ग्रसित हो जाते हैं। इसलिए उन्हें नए ढंग और नई सोच के साथ अपने को बदलना चाहिए। सी.एस.लुइस ने कहा है-‘आप कभी भी इतने बूढ़े नहीं होते कि एक नया लक्ष्य न निर्धारित कर सकें या एक नया सपना न देख सकें।’ अतएव उचित यही है कि व्यस्त रहने के लिए कुछ ऐसे कार्यो को प्रारंभ करें जिनमें आपकी रुचि हो। जैसे, नई भाषा सीखना, संगीत सीखना, पेंटिंग, लेखन आदि। अब आप कहेंगे कि यह उम्र भी कोई सीखने की है। तो सीखने के विषय में मोटरकार उद्योगी हेनरी फोर्ड के विचार सुनिए-‘जो सीखना बंद कर देता है, वह बूढ़ा हो जाता है, भले ही उम्र 20 हो या 80 वर्ष। दिमाग को हमेशा नौजवान बनाए रखना जिंदगी में सबसे बड़ी चीज है।’ अर्थात् यह मत सोचिए कि आप की उम्र क्या है। क्योंकि आप उतने ही उम्रदराज होेते हैं जितना खुद को महसूस करने देते हैं। जो लोग खुद को उम्रदराज मान लेते हैं वे उतनी ही जल्दी कमजोर महसूस करने लगते हैं और अपनी जीवन-शैली को भी उसी अंदाज में ढाल लेते हैं।
अगर आपको जवान बने रहना है, तो एक ही उपाय है और वह है प्रतिदिन कुछ नया सीखने की आदत डालना। सीखते रहने की प्रवृत्ति से मस्तिष्क कभी थकान अनुभव नहीं करता है। बल्कि वह और अधिक सजग हो जाता है।
-लियानार्दोदविंची
नई चीज सीखने के लिए जिसने आशा छोड़ दी वह बूढ़ा है। -विनोबा भावे
इतिहास हमें बताता है कि अधिकांश महान् लोगों ने वृद्धावस्था में ही अपने जीवन का सबसे अधिक महत्वपूर्ण कार्य किया है। जैसे,
महाकवि गो. तुलसीदास ने 75 वर्ष की उम्र में रामचरितमानस लिखा।
रवीन्द्रनाथ टैगोर को नोबल पुरस्कार भी वृद्धावस्था में मिला।
महान समाजसेवी विनोबा भावे कई भाषाओं के विद्वान् थे और अंतिम वर्षो में चीनी भाषा सीख रहे थे।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी तथा प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू अंतिम समय तक देश की सेवा में संलग्न रहे।
सुप्रसिद्ध इंजीनियर विश्वेश्वरैय्या की मृत्यु एक सौ चार वर्ष की उम्र में हुई। वे अन्तिम दिनों तक सक्रिय और सजग रहे। किसी ने उनसे प्रश्न किया आपके इस अक्षुण्ण यौवन का रहस्य क्या है? उन्होंने उत्तर दिया-‘बुढ़ापे की बात मैं कभी नहीं सोचता। जब कभी बुढ़ापा हमारा दरवाजा खटखटाता है, तो भीतर से उत्तर मिलता है-‘विश्वेश्वरैय्या घर पर नहीं हैं।’
महान दार्शनिक सुकरात ने साठ वर्ष की उम्र के बाद संगीत सीखना आरंभ किया।
यूनान के महान साहित्यकार प्लूटार्क ने 75 वर्ष की आयु के बाद लेटिन भाषा पढ़नी आरंभ की थी।
हस्तरेखा विशेषज्ञ कीरो ने 80 वर्ष की उम्र में ग्रीक भाषा सीखी।
चर्चिल ने 80 वर्ष की उम्र में इंग्लैड का प्रधनमंत्री पद संभाला।
मोटरकार-उद्योगी हेनरी फोर्ड 82 वर्ष की आयु में भी उतने चुस्त, उत्साही और स्वस्थ थे जितने कि वे जवानी में थे।
एडीसन ने सबसे अधिक पुस्तकें तथा शेक्सपीयर ने अपने प्रसिद्ध नाटक वृद्धावस्था में ही लिखी।
एच.जी.वेल्स ने 70 वर्ष की उम्र के बाद दर्जनों पुस्तकों की रचना की।
टेनीसन ने 80 वर्ष की अवस्था में अपनी सुंदर रचना ‘क्रांसिग दी वार’ दी।
गेटे ने अपना श्रेष्ठ ग्रंथ 80 वर्ष की अवस्था में लिखा।
जार्ज बर्नार्ड शा 94 वर्ष तक विश्व को अपनी उत्तम कृतियां देते रहे।
वास्तव में स्फूर्ति, उत्साह, उमंग, खुशी और आशावादी सोच ही जीवन का प्राण है। जब तक मनुष्य में उक्त गुण विद्यमान हैं , तब तक वह युवा है। शरीर में दिमाग ही एक ऐसा अंग है, जिसे अच्छी तरह सक्रिय रखने पर सारा शरीर पूरी तरह सक्रिय रहता है। जब मनुष्य मस्तिष्क से कार्य नहीं लेता तब वह मानसिक रूप से वृद्ध होने लगता है। उसके चेहरे पर निराशा और उदासीनता दिखाई देने लगती है। उसका दृष्टिकोण भी निराशावादी बन जाता है।
अतएव हमेशा यही सोचें कि वृद्धावस्था जीवन का वरदान है, अभिशाप नहीं। निराश, उदास न रहें। अपना मनोबल मजबूत रखें। ‘शतं जीवेत् शरदो’ सौ वर्ष तक स्वस्थ और उन्नतिशील जीवन जीने का एक बार विचार कर के तो देखिए।
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