रविवार हो, या त्यौहार हो,
या फिर छुट्टी वाला वार हो,
तब नींद कहां सुबह खुलती थी.........
आंखें देर तक बन्द रहती थी।।
लगता था जैसे कई दिनों के बाद
इतना आराम मिला है।
भूल जाता था कि रविवार बीते हुए
कितना दिन ही हुआ है।
अब सोचता हूँ जीवन में ऐसे
सुनहरे दिनों से मुलाकात कब होगी
जब नींद सुबह नहीं खुलेगी.........
आंखों में देर तक रहेगी।।
क्योंकि कई दिनों से आदमी
घर में रह रहा है,
महामारी के लाॅक-डाउन में
काम-धंधा बन्द पड़ा है।
प्रकृति को कुछ विश्राम मिला है
आकाश, नदियां, जल, वायु
स्वच्छ हो रहा है
चिड़ियों की चहचहाहट बढ़ गई है
और नींद..............,
सुबह सुबह ही खुल रही है।।
नींद खुलते ही आंखों में
यह उम्मीद जगता है,
आज महामारी का प्रकोप
कम हो सकता है।
पर जैसे जैसे दिन बीतता है,
समाचार कहता है
स्थिति अच्छी नहीं है,
तब मन निराश होता है,
काम धंधे और
स्वास्थ का ध्यान आता है,
मन भविष्य की कल्पना में
पुनः खो जाता है।
और फिर रात सभी को सुला जाती है।
सुबह सवेरे सूरज की किरणें
एक नई आशा लेकर आती है
और नींद.........,
सुबह सुबह ही खुल जाती है।।
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